दिसम्बर की सर्दी की यह जो धुंध है कोहरे की यह चादर जिसमें धरा गुमसुम है यह धुंध अब आम नहीं और यह धुंध खास भी नहीं पर सावधान ! क्योंकि यह धुंध कुछ बदहवास है । यह वो मीठी धुंध नहीं जोअपने पाँव पसार कर कनक को सहलाती है प्यार से और कृषक के मुख पर मोती बिखराती है आस के कि अब जब बहार होगी तब क्षितिज तक बस लहलहाएगी कनक की बालियाँ । और ना यह वह धुंध है जो गली -मोहल्लों में जाने-अनजाने लोगों को बुलाती है पास जब भूलकर सब तेरा- मेरा घेरे सेंकड़ों हाथ रहते हैं अलाव। यह तो धुंध है अलगाव की यह तो धुंध है पथराव की यह वो नागिन धुंध है जो शीशों का नहीं बल्कि दिलों को ,सोच को धुंधला करती है यह वो धुंध है जो दिल्ली दिलवालों की को इतिहास बनाती है यह वो धुंध है जिसकी आड़ में खाकी जो है सबकी रक्षक आम नागरिक उसके बन गए हैं भक्षक । यह धुंध है साजिश की यह धुंध है कुटिल राजनीति की यह धुंध है अनपढ़ता और अविश्वास की यह धुंध है खौफ़ ,हिंसा और आतंक की यह वो धुंध है जो जलाती है जिसमे तपिश है । जिस पर क्रूर राजनीति की सीकती हैं रोटियाँ जहाँ कानून से होता है खिलवाड़ और राई के बनते हैं पहाड़ जहाँ अब नागरिक भ...